मग संस्कृति के विशिष्ट तत्व: -डॉ विजय प्रकाश शर्मा.


इतिहास साक्षी है , सभी भारोपीय भाषा -भाषी दीर्घ अतीत में भारत भूमि पर मध्य -एशिया से आये , उन्हीं में शाकद्वीपीय ब्राह्मण भी हैं। सभी भारत में सनातन संस्कृति के संस्थापक और अनुयायी के रूप में प्रसिद्द हुए. बाद के जैन , बौद्ध , सिख , मुसलमान , ख्रीस्त धर्मावलम्बी भी इसी से उपजे। मत विभेद ने यह विच्छेद किया और सबों ने अपनी -अपनी पूजा पद्धति विकसित कर अलग सम्प्रदाय के रूप में मान्यता प्राप्त की। कालान्तर में आपसी वैमनष्य बढ़ता चला गया और सप्रदाय की कटुता बढ़ती गई। वर्चश्व की लड़ाई में सभी शामिल हो गए। इन सबों में भी अनेकानेक उपसम्प्रदाय बनते चले गए। अब जो स्थिति है विज्ञ जन उसे जानते हैं।


शाकद्वीपी ब्राह्मण  बाहर से नहीं आये थे वल्कि भारत भूमि के ही आदि निवासियों में हैं। आधुनिक पुरातात्विक शोध ने  इसे स्पष्ट कर दिया है। शाकद्वीप का अर्थ है पादपों से  भरा द्वीप - अर्थात पुराना वंग (मगध ,अंग, वंग , कलिंग) वर्तमान झारखण्ड के ही निवासी थे।  इन्हीं क्षेत्रों  में उन्होंने 
'सूर्य- वेधशालाओं " (सन ऑब्जर्वेटरी )की स्थापना की थी - २०१२ के हज़ारीबाग़ स्थित पुकरि- बरवाडीह  में उत्खनन से प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह निर्विवाद स्थापित सत्य है, की शाकद्वीपी  एकल शिला के माध्यम से 'सूर्य- वेधशालाओं " का निर्माण कर सूर्य और ग्रहों की गति का अध्ययन किया करते थे। भारत में  कई  अन्य क्षेत्रों से प्राप्त एकलशीला(मोनोलिथ ) इनके सम्पूर्ण तत्कालीन भारत में फैलाओ को प्रमाणित करता है. ये वेधशालाएं ३००० इ. पूर्व स्थापित की गई थी , जो महाभारत की कथा( साम्ब का कुष्ट होना) से पूर्व की ठहरती हैं।  कृष्ण ने इन्हें यहीं से द्वारिका बुलाया था और फिर यहीं -मगध में पहुंचा दिया था। उपरोक्त अवलोकन को सत्यापित करने हेतु प्रोफेसर टी.के.  दास द्वारा प्रस्तुत उत्खनन रिपोर्ट यहाँ दिया जा रहा है ताकि शाकद्वीपी की प्राचीन भारत में उपस्थिति का प्रमाण देखा जा सके।
REFERENCE-MAGAS in India :
(This is extract from the  article  published in Dr. Vijay Prakash Sharma edited book” Contemporary Indian Society- In the beginning of 21st century”, Anmol Publications Pvt Ltd, New Delhi, 2015  )


Vaidyas India
Moderator · February 19
इक्कीशवीं सदी में शाकद्वीपी समाज में सामाजिक परिवर्तन की दिशा और दशा _
  विजय प्रकाश शर्मा 
परिवर्तन सामाजिक नियम है , मानव समाज में पूरे विश्व में विगत ३० वर्षों में युगांतरकारी परिवर्तन हुए हैं। विज्ञान आधारित अनुसंधानों ने विश्व को एक ब्रह्मांडीय ग्राम की तरह निकट ला दिया है , दूरियां घट गई हैं , नए अविष्कारों ने उसे आभासीय दूनियां के माध्यम से अलग -थलग पड़े समाज और परिवारों से फिर से जोड़ दिया है। यह इस सदी की सबसे बड़ी घटना है। ऐसे में शाकद्वीपी समाज भी अछूता नहीं रह गया है , यह समाज अब एक द्वीप की तरह कटा हुआ नहीं है बल्कि विराट विश्व का एक हिस्सा बन गया है। अब यह समाज अपने गरूड़ आरोह के आगमन की कथा से बहुत आगे आ चूका है। नए पुरातात्विक अनुसंधानों ने इस समाज को कृष्ण - शाम्ब की समकालिता से पूर्व के उनके भारत निवास के सत्य पर मुहर लगा दी है। फिर भी अन्य समाजों की तरह इस समाज के बहुत से विचारक अभी भी इस आगमन की कथा से अपने को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं , शायद उनमें यह भय है की कथा से मुक्त होते ही उनके दिव्य होने की मान्यता पर खतरा उत्पन्न हो जाएगा। ऐसा शायद इसलिए भी है , क्योंकि उन्हें नए तथ्यों की जानकारी नहीं मिल पाई है , या और किसी अज्ञात भय ने जकड रखा है। यह भी संभव है की शाम्ब की कथा ने उन्हें भौगोलिक पहचान दी है - उनके बसावट के ७२ पूर (गाँव) की भूमि ने ,जिसके आधार पर सामाजिक व्यवहारों , संस्कारों , विवाहादि में उनकी अन्य से भिन्नता है।

अब हमारे सामने तीन तरह के मान्यताओं वाले शाकद्वीपी मिलते हैं , कुछ शास्त्रकारों की मान्यता है की शाकद्वीप में भी चतुःवरण व्यवस्था थी - (बिलकुल ब्राह्मण, छत्रिय, वैश्य, एवं शूद्र की तरह), तो जो शाकद्वीपी शाम्ब के समय आये वे निर्विवाद रूप से शाकद्वीपी ब्राह्मण कहे जाते हैं बाकी अन्य के विषय में सबकुछ अज्ञात है। वर्तमान में भोजकों ने भी अपने को शाकद्वीपी ब्राह्मण में ही शामिल कर रखा है , जो राजस्थान में हैं , उनके पास ७२ पुर जैसी सशक्त पहचान नहीं है पर कुछ है। वे नीरविवादित रूप से शाम्ब के पहले आये लोगों की परंपरा है। मगध के ७२ पूर्व वाले शाकद्वीपी ब्राह्मण की श्रेष्ठता के कारण भोजकों से उनका विवाह नहीं होता रहा है , या एक कारण यह भी हो सकता है की मगध से राजस्थान काफी दूर होने के कारण ऐसे नहीं हो पाया हो. जो भी हो - ७२ पुरीय शाकद्वीपीय ब्राह्मण व्यवस्था सर्वमान्य रही है , अब आधुनिक परिवर्तन में कुछ १०२ , कुछ १०८, कुछ ११६ या इससे अधिक बतलाने लगे हैं। पर यह हमेशा प्रश्नचिन्ह लिए खड़ा रहता है।
विभिन्न पत्रिकाओं , पुस्तकों में हमारे विद्वत जनों खासकर श्री ज्योतिंद्र मिश्र जी ने काफी वृतांत लिखा है , जोंआधुनिक और प्राचीन का सुन्दर सामंजस्य प्रस्तुत करता है। श्री पुण्यार्क गुरूजी की सद्यः प्रकाशित " मगदीपिका" में भी काफी परिश्रमपूर्वक शास्त्रीय तथ्यों की प्रचुर जानकारी उपलब्ध कराई है। पूर्ववर्ती लेखन में बृहस्पति पाठक की रचना "मगोपाख्यान ", कृष्णदासमिश्रा की "मगवयक्ति " स्वजातीय लेखकों की अनुपम कृति हैं। अन्य अनुसंधान करता इतिहासकारों ने भी" मग " पर काफी शोध प्रकाशित किया है जिनकी संख्या सतादिक है। खैर, मेरा उद्देश्य इस समय इतिहास की चर्चा करना नहीं वरन शाकद्वीपी समाज में हो रहे तात्कालिक सामाजिक परिवर्तनों से पाठककोअवगत कराना है। इस क्रम में मैं आधुनिक प्रभाव की और ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा .
आज का युवा वर्ग अपने स्थूल इतिहास से परिचित/ अपरिचित रहते हुए आधुनिक संसाधनों का उपयोग और उपभोग करने लगा है। अब वह पुरानी अर्थ व्यवस्था से बंधा हुआ नहीं है वल्कि समाज में जो आधुनिक शिक्षा -हैं उनमे पारंगत हो नए विश्व में अपना स्थान सुनिस्चित करने में लगा है। यह बड़ा परिवर्तन है। आजीविका के जितने आधुनिक आयाम हैं सबमें कमोवेश उसने अपनी उपस्थिति दर्ज़ करनी शुरू कर दी है , स्वाभाविक है की कुछ पुराने आचार टूटेंगें , कुछ नए जुडेंगें। इन परिवर्तनों का हमें खुले मन से स्वागत करना होगा तभी हम वर्तमान की प्रतिस्पर्धा में जीत पायेंगें। ऐसे परिवर्तन के दौर में युवाओं में पुअनि परंपरा के बदलाव के कारण उन्हें अलग किया जाना या उपहास उड़ाना समाज को गहरे संकट में दाल देगा। अतः पीढ़ियों को सामजस्य स्थापित कटचलना होगा और वैश्विक चिंतन में जुड़ना होगा। विवाहादि में भी परिवर्तन होंगें , संस्कारों से दूरी हो सकती है , पर समाज से जुड़ाव तो बनाय रखने की जरूरत होगी यह तभी संभव होगा जब उनके आधुनिक दृश्टिकोण को समाज की स्वीकृति मिलेगी. सम्माज को भी लचीला बनना पड़ेगा वरन टूटन की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। अवश्यम्भावी परिवर्तन को रोका नहीं जा सकता।
हम मग अन्य ब्रह्मणों  से भिन्न अपनी सांस्कृतिक अस्मिता बनाय रखने में ३,५०० वर्षों से अधिक समय से कामयाब रहे हैं।  इस कामयाबी में हमारी संस्कृति के निम्नलिखित तत्व की प्रमुखता रही है -
 मग  संस्कृति के विशिष्ट तत्व:-
१. हम अपने इतिहास से हमेशा जुड़े रहे और उसे अक्षुण बनाये रखा। 
२. हमने अन्य ब्राह्मणों की गोत्र परंपरा के साथ , पुर की प्रधानता को अपनी पहचान के रूप में बनाये रख्ा।
३.हमनें वैदिक संस्कृति के साथ अपने को आत्मसात कर सामाजिक १६ संस्कारों को अपने परिवार के सामाजीकरण की प्रक्रिया अक्षुण्ण रखी.
४. सूर्योपासना हेतु मंदिर निर्माण की वास्तुकला को भी आगे बढ़ाया फलतः प्रायः सभी बड़े सूर्यमंदिर एक ही वास्तुकला  पर आधारित हैं. 
५. सूर्य को जाति संरक्षक देवता मानने के कारण हम भारतीय आदिवासियों के साथ रच-बस गए और द्रविड़ संस्कृति तक हमारी पहुँच बन गई. 
६. हमने अनगिनत सूर्य वेधशालाओं का निर्माण किया और ब्रह्माण्ड विज्ञान मेंअभूत्पुर्व योगदान दिया। 
७. हमने आयुर्वेद, खगोलविद्या, कीमियागिरी, ज्योतिष को अपनी आजीविका का आधार बनाया और सफलता पूर्वक राज्यानुदान प्राप्त किया। 
८. हम पारसियों की तरह देसज समाज में दूध-पानी की तरह घुल -मिल गए जिसे अब अलग नहीं किया जा सकता. 
९. हमारे समाज ने पुर/गोत्र वहिर्विवाह और जाति अंतर्गत विवाह को अंगीकार कर इसे अबतक बनाये रखा है (अपवादों को छोड़कर). यह वैज्ञानिक दृश्टिकोण से अतिउत्तम व्यवस्था मानी गई है।  नए आनुवांशिक अनुशन्धानों ने इसकी पुस्टि की है और अत्युत्तम माना है. 
१० हमारी सहभोजन परंपरा भी अद्भुत है (जेवनार गीत के साथ ) एक पंगत में बैठने की तथा अनेकानेक व्यंजनों की. 
११. हमारी अद्भुत स्व-आलोचना की परंपरा हमें हमेशा नविन खोजों की ओर प्रेरित करती रहती है. 
मुझे विश्वास हैं मग मौलिकतावादी समूह के सदश्य इसे अपने समाज के लोगों के साथ साझाकर समाज की विशिष्ट पहचान को भविष्य में भी अक्षुण्ण रखने की यथासंभव प्रयास करते रहेंगे और नविन तत्वों का समावेश कर आत्मसात कर आगे बढ़ते रहेंगे. परिवर्तन संसार का नियम है और इसे स्वीकार और अंगीकार कर ही भविष्य की चुनौतियों का सामना किया जा सकता है.

 मग संस्थाओं की गतिविधियों पर विहंगम दृस्टि -एक आकलन -

देश में सबसे ज्यादा शाकद्वीपी संस्थाएं मगध क्षेत्र (झारखण्ड , बिहार , पूर्वी उत्तरप्रदेश ) में बनी हैं , इसके बाद राजस्थान का नंबर आता है। इसका मूल कारण इन जगहों पर इनकी अच्छी आबादी बस्ती है। इन संस्थाओं द्वारा निम्नलिखित कार्यक्रम कमोबेश चालाये गए हैं या जा रहे  हैं -
१. सूर्य सप्तमी /अचला सप्तमी पूजन २. संगठन और निर्वाचन सभा ३. मंडल स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक सम्मलेन - (भोजन-भजन आत्म आलोचन), ४. पत्रिका प्रकाशन ५ स्वजातीय सहभोज ,६होलिमिलन ७. ग्राम - शहर भ्रमण - स्वजातियों से मुलाक़ात , वार्ता , फोटो संकलन ८. मुद्दों पर गंभीर चिंतन हेतु सिर्फ एकअध्  सम्मेलन ९. सम्मेलनों में दो मुद्दोंपर गर्जन -तर्जन- दहेज़, अंतर्जातीय विवाह। १०. कुछ संस्थाओं द्वारा दहेजमुक्त विवाह हेतु पहल ,११. देव -महोत्सव १२. अपने अपने फेसबुक पृष्ठ पर गतिविधियों का छायाचित्र तथा अखबार के कतरन का  सम्प्रेषण ,१३. जर्रोरात्मंदों को सहायता का भी  शुभारम्भ हुआ है १४. प्रतिभा सम्मान -मग सम्मान ( एक -दुसरे पर आरोप- प्रत्यारोप का अनवरत सिलसिला जारी (इसके सहभागियों से क्षमाप्रार्थना सहित ). 
कूल मिलाकर सराहनीय प्रयास चल रहा है - बीते दो -वर्षों में अभूतपूर्व सफलताओं का इतिहास रचा गया है और आगे भी चलेगा. सबसे बड़ी सफलता है युवा नेतृत्व ने कार्यभार संभाल लिया है. धीरे -धीरे नए -पुराने नेतृत्व में सामंजस्य की प्रक्रिया चलने लगी है, अंतर्राज्यीय  प्रतिनिधियों ने भी सभाओं में योगदान देना शुरू कर दिया है। सबसे बड़ी बात -समारोहों में महिलाओं की प्रतिभागिता चमत्कारिक  रूप से बढ़ी  है , भविष्य के प्रति आशावान होने में कोई हर्ज़ नहीं है- बस एक दुसरे से स्पर्धा  रखें - ईर्ष्या को कुछ समय तक विराम दे देना चाहिए.  वैसे "हंसन की नहीं पांत ". दूसरी चिंतन शिविर की आवश्यकता है.

ध्यानार्थ :
सभी स्वजातीय संस्थाएं अपने विचारों और कार्यों के लिए स्वनिर्णय का अधिकार रखती हैं , सबकी अपनी अपनी सार्वभौमिकता है , किसी पर दुसरे से जुड़ने का दबाव अनावश्यक है. वो जुड़े या न जुड़े यह उनके निर्णय पर निर्भर है। इस बात को समझ कर ही अपना मंतव्य देना चाहिए। भविष्य -एकता की चिंता अतिरंजित चिंतन है। एक ध्वज जैसे संकल्पना बेमानी है -राष्ट्रीय के नाम से कई संस्थाएं तथा फ. ब पृष्ठ चल रहे हैं। सबका स्वागत है। शाकद्वीपी मिल नहीं सकते यह मिथक है सच नहीं। हाँ दुसरे की सत्ता स्वीकार नहीं कर पाते -यह सहज है। इन सबके बावजूद संगठन बने हैं क्रियाशील भी हैं.बस आपस में सहयोग की भावना चाहिए -एक दुसरे के छिद्रान्वेषण से बचना चाहिए -इतना ही अपेक्षित है । इतना ही संतोष जनक है। अगर चलता रहेगा तो सब ठीक ही होगा. शुभकामनायें।

स्वजातीय संगठन और राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं -

वैसे संगठन बनाना ही राजनैतिक गतिविधियों से जुड़ जाना होता है क्योंकि यहाँ वही चुनाव - लुझाव -सुझाव -उलझाओ जैसे क्रियाएं होती ही हैं. पर स्वयंसेवी संगठनों में परोपकार की भावना से काम होता है राजनीति गौण रहती है परन्तु जो सम्माजिक संगठन राजनीती से जुड़ना चाहते हैं तो पहले उन्हें अपने वर्तमान संविधान में संसोधन करना होगा। यदि संगठन ट्रस्ट या सोसाइटी एक्ट १८६० के अंतर्गत निबंधित है तो उसे राजनैतिक गतिविधियों का संचालन करने का अधिकार नहीं है , इसके लिए उसे राजनितिक पार्टी के रूप में निबंधन करवाना होगा. कुछ संस्थाएं जो ऐसा सोंच या कर रही हैं उन्हें सावधान हो जाने की जरूरत है। सरकार निबंधनको कभी भी रद्द कर सकती है. अतः आग्रह है की अपनी राजनितिक मंज़िल तय करते समय इस बात का ध्यान रखें. शुभकामनाऎ।
१५ अप्रैल २०१९ को" मग - मौलिकतावादी" समूह अपने द्वितीय वर्ष तक की यात्रा पूरी कर रहा है। इस यात्रा में मैं प्रारम्भ से ही जोड़ा गया हूँ - आभार राजेंद्र जी एवं उनके प्रशासनिक मित्रों का। इन दो वर्षों में अनगिनत विचारों का आदान -प्रदान हुआ , अनेकानेक विषयों पर गरमागरम बहस भी खूब हुआ. बहुत सारे पोस्ट आये  - गज़ब की सहभागिता रही. सभी ३५० के आसपास प्रतिभागियों ने इंकार -इकरार के प्रेमगीत गाये, बहुतों ने शाकद्वीपी जाति की भारत में आगमन से लेकर अद्यतन समाज की समस्याओं तथा इतिहास विषयक विचार और प्रमाण रखे. इससे नै पीढ़ी में अपनत्व की भावना जोर मारने लगी, और गिला -शिकवा भी खूब हुआ। 


समकालीन स्वजातीयता और स्वाभिमान-

वर्तमान पंचायत  व्यवस्था के लागू हो जाने के बाद सभी परंपरागत जाति समाजों का केवल प्रतीकात्मक स्वरूप्प ही बचा है  और शाकद्वीपी समाज भी इसका अपवाद नहीं है। अब ऐसे समय में चलो परंपरा की ओर जैसे मुहावरे अर्थ खो बैठे हैं। 
फिर भी यहाँ बा  समकालीन स्वजातीयता और स्वाभिमान-की है -राष्ट्र का जिस तरह स्वाभिमान होता है वैसे ही पहले जातियों में भी स्वभावगत विशेषताएं होती थी  और इस सन्दर्भ  मेंकहा जाता था "जिसको नहीं निज देश का निज जाति का अभिमान है , वो नर नहीं निरा मृतकपशुसमान है" . पर ये बीती बातें हो गई।  पाश्चात्य मूल्यों ने हावी होना प्रारम्भ कर दिया और सबकुछ गडमड हो गया
अब समकालीन परिस्थिति में प्रयास जितना भी करें अतीत की ओर  नहीं लौट सकते।  तब क्या कर सकते हैंपहले तो अपने समाज की उन परम्पराओं को खोजना होगा जो हमें दूसरों से अलग करता थाअब इसमें कठिनाई यह है कि परम्पराएं क्षेत्रवार अलग -अलग होंगी।  मगधमिथिला ,गुजरातराजस्थान , बंगालओडिसा इत्यादितब स्वजातीयता की परिभाषा क्या होगी -किन परम्पराओं के पालन को हम स्वाभिमान कहेंगे?
स्वजाति विवाह (इतिहास साथ नहीं देता ?), दहेज़उन्मूलन  ?), शाकाहार (?), पंथ (वैष्णव,शैव,शाक्त,अन्य ?), वृत्ति (भैषज्य , पौरोहित्य , नौकरी , चाकरी,अन्य ?), कुलदेव/देवी ? किसे आधार माना  जाएगा?  हमारा समाज अन्य भारतीय समाजों की परंपरा से अलग नहीं दीखता , कहीं  कहीं एक दुसरे से करीब नज़र आता  है
प्रश्न है कौन चिंतन करे ? कौन परिवर्तन का माला उठायकौन पुराने संस्कारों की पुनर्स्थापना का दुरूह संकल्प ले?
स्वजात्य विवाह जाति की भारतीय प्रव्रिति है , जाति एक बंद वर्ग है जिसमें विजातीय विवाह की अनुमति नहीं है। अपवाद स्वरुप (किसी मज़बूरी या आक्रोश  में ) विजातीय विवाह होते हैं। इसे  अपवाद ही समझना चाहिए जाति नियम में परिवर्तन नहीं
आग्रह-
प्रायः सभी शाकद्वीपी समाज सम्बन्धी सोशल मीडिया समूह में ५०-६० व्यक्ति सक्रिय सदस्य के रूप में उपस्थित दिखाई देते हैंप्रकारान्तर से यह कहा जा सकता है की इतने बन्धुगण सभी जगह सक्रिय हैंक्यों नहीं इन सर्व शाकद्वीपी सोशलमीडिआ के सदस्यों का एक मार्गदर्शकमंडल बनाया जाए तथा उनके समाज सम्बन्धी अनुभवों को एक मंच प्रदान किया जाय। इस पर विचार करें और जो समूह पहल करना चाहे उसे सम्मान दिया जाय

Vijay Prakash Sharma Ph.D. 
Director, (VAIDYAS –India).



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